परम पूज्य सन्त शिरोमणी आचार्य रत्न श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज

आषाढ़ सुदी ५ वि.सं. २०२५, तदनुसार ३० जून ६८ का दिन। शहर अमजेर। स्थान सोनीजी की नसिया। सूर्य की प्रथम किरण नृत्य कर रही है। अभी-अभी बाल अरुण ने नेत्र खोले हैं। मठ, मढ़िया, मंदिर, नसिया, चैत्यालय मुस्करा रहे हैं। उनके गर्भ से गूँजती पीतल के घंटों की आवाजें कोई संदेश बार-बार दोहरा रही हैं। देवालयों के बाहरी तरफ कहीं सिंहपौर के समीप श्यामपट्ट पर खड़िया से लिखा गया समाचार आज भी चमक रहा है। जिसे कल सारा नगर पढ़ चुका था, उसे आज फिर वे ही लोग पढ़ रहे हैं। कुछ स्थानों पर हार्डबोर्ड पर लिखकर टाँगा गया है। वही समाचार। नगर के समस्त दैनिकों ने समाचार छापकर अपना विनम्र प्रणाम ज्ञापित किया है योगियों के चरणों में। कुछ प्रमुख अखबार ब्रह्मचारी विद्याधर का चित्र भी छाप पाने में सफल हो गए हैं। अनपढ़ों से लेकर पढ़े-लिखे तक समाचार सुन-पढ़कर चले आ रहे हैं नसिया के प्रांगण में। धनिक आ रहे हैं। मनीषी आ रहे हैं। हर खास आ रहा है। हर आम आ रहा है। कर्मचारी-अधिकारी एक साथ आ रहे हैं। परिवारों के झुण्ड समाते जा रहे हैं पांडाल में। नारियों का उत्साह देखने लायक है, वे अपनी अति बूढ़ी सासों तक को साथ में लाई हैं। बच्चों का जमघट हो गया है। सभी के कान माइक से आती आवाजों पर बार-बार चले जाते हैं। पूर्व घोषणा के अनुसार आज परम पूज्य गुरु श्री ज्ञानसागरजी महाराज अपने परम मेधावी, परम-तपस्वी शिष्य, युवा योगी, ब्रह्मचारी श्री विद्याधरजी को जैनेश्वरी दीक्षा प्रदान करेंगे। बोलिए-गुरु ज्ञानसागर कीजय। बोलिए- युवा तपस्वी ब्रह्मचारी विद्याधर कीजय।

सोनीजी की नसिया के प्रांगण में भगवान महावीर के समवशरण जैसा दृश्य बन गया है। मंच लंबा-चौड़ा है, ऊँचा है। मंच के सामने जनसमुदाय है। जनसमुदाय के समक्ष मंच पर एक ऊँचे सिंहासन पर गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी विराजित हैं, साथ ही क्षुल्लकश्री सन्मतिसागरजी, क्षुल्लकश्री संभवसागरजी, क्षुल्लकश्री सुखसागरजी एवं संघस्थ अन्य ब्रह्मचारी भी आसीन हैं। 

उनके कुछ ही दूरी पर ब्र. विद्याधर बैठे हैं। समीप ही शहर के श्रेष्ठी विद्वानगुणीजन बैठे हैं। सर सेठ भागचंद सोनीप्राचार्य निहालचंद जैनश्री मूलचंद लुहाड़ियाश्री दीपचंद पाटनी एवं श्री कजौड़ीमल सरावगी को दूर से ही पहचाना जा सकता है।

दीक्षा समारोह प्रारंभ

दीक्षा समारोह प्रारंभ होता है। ब्र. विद्याधर खड़े होकर गुरुवर की वंदना करते हैंहाथ जोड़कर दीक्षा प्रदान करने की प्रार्थना करते हैं। गुरुवर का आदेश पाकर विद्याधर वैराग्यमयीसारगर्भित वचनों से जनता को उद्‍बोधन देते हैं तदुपरान्त विद्याधर ने हवा में उड़ने वाले केशों का लुन्चा करना प्रारंभ कर दिया। अपनी ही मुष्टिका में सिर से इतने सारे बाल खींच ले जाते कि देखने वाले आह भर पड़ते हैं। फिर दूसरी मुष्टिका। तीसरी। फिर सिर के बाल निकालते हुए कुछ स्थानों से रक्त निकल आया है। विद्याधर के चेहरे पर आनंद खेल रहा है। हाथ आ गए दाढ़ी पर। दाढ़ी की खिंचाई और अधिक कष्टकारी होती है। वे दाढ़ी के बाल भी उसी नैर्मम्य से खींचते हैं। हाथ चलता जाता हैबाल निकलते जाते हैंपूरा चेहरा लहूलुहान हो गया है। श्रावक सफेद वस्त्र ले उनकी तरफ दौड़ पड़ते हैं। वे अपने चेहरे को छूने नहीं देते।

बाल खींचते जाते हैं। रक्त बहता जा रहा है। विद्याधर जहाँ के तहाँ / अविचलित खुश हैं। आनन्दमय हैं। केश लुन्च पूर्ण होते ही पंडितों-श्रावकों और अपार जनसमूह के समक्ष गुरु ज्ञानसागरजी संस्कारित कर उन्हें दीक्षा प्रदान करते हैं। विद्याधर वस्त्र छोड़ देते हैं दिगम्बरत्व धारण कर लेते हैं। तभी एक आश्चर्यकारी घटना घटी। राजस्थान की जून माह की गर्मी और खचाखच भरे पांडाल में २०-२५ हजार नर-नारी। समूचे प्रक्षेत्र पर तेज उमस हावी थी। लोग पसीने से नहा रहे थे। वातावरण ही जैसे भट्टी हो गया हो। जैसे ही विद्याधर ने वस्त्र छोड़े, पता नहीं कैसे कहाँ से बादल आ गए और पानी की भीनी-भीनी बौछार होने लगी, हवाएँ ठंडी हो पड़ी, वातास शांति एवं ठंडक अनुभव करने लगा। ऐसा लगा कि प्रकृति साक्षात् गोमटेश्वरी दिगम्बर मुद्रा का महामस्तकाभिषेक कर कर रही हो अथवा देवों सहित इन्द्र ने ही आकर प्रथम अभिषेक का लाभ लिया हो। कुछ समय बाद पानी रुक गया। सूर्य ने पुनः किरणें बिखेर दीं। सभी दंग रह गए, कहने लगे यह तो महान पुण्यशाली विद्यासागरजी की ही महिमा है। सभी अपने-अपने मनगढ़ंत भाव लगाकर विद्याधर के पुण्य का बखान कर रहे थे। वहीं छोटे बालक कह रहे थे विद्याधर ने जैसे ही धोती खोली वैसे ही इन्द्र का आसन काँप गया सो उसने खुशी जताने के लिए नाच-नाचकर यह वर्षा की है। ज्ञानसागरजी पिच्छी कमण्डल सौंपते हैं और मुनिपद को संबंधित निर्देश देते हैं। दीक्षा संपन्न।

आचार्य श्री विद्यासागरजी के संयमित जीवन के आचार्यश्री शांतिसागरजी और आचार्यश्री ज्ञानसागरजी, दो स्वर्णिम तट हैं। एक ने उनके जीवन में धर्म का बीज बोया तो दूसरे ने उसे पुष्पित/पल्लवित कर वृक्ष का आकार प्रदान किया। आचार्यश्री शांतिसागरजी की सारस्वत आचार्य परम्परा में आचार्य शिवसागरजी के उपरान्त जब आचार्य गुरुवर ज्ञानसागरजी ने श्रमण संस्कृति धर्म एवं समाज को उत्कर्ष तक पहुँचाने के उद्देश्य से अपने ही द्वारा शिक्षित/दीक्षित मुनि विद्यासागर को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया तो विद्यासागरजी अवाक्‌ रह गए और अपनी असमर्थता जाहिर की।

आचार्य महाराज ने कुछ सोचकर कहा कि देखो अंतिम समय आचार्य को अपने पद से मुक्त होकर, अन्य किसी संघ की शरण में, सल्लेखनापूर्वक देह का परित्याग करना चाहिए। यही संयम की उपलब्धि है और यही आगम की आज्ञा भी है। अब मैं इतना समर्थ नहीं हूँ कि अन्यत्र किसी योग्य आचार्य की शरण में पहुँच सकूँ, सो मेरे आत्मकल्याण में तुम सहायक बनो और आचार्य-पद संभालकर मेरी सल्लेखना कराओ। यही मेरी भावना है।

आचार्य पद

         22 नवंबर 1972 को नसीराबाद, राजस्थान में गुरु आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज आचार्यश्री                                                विद्यासागरजी महाराज को आचार्य पद प्रदान करते हुए

36 साल पहले आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने आचार्य विद्यासागर जी को आचार्य पद दिया। तब आचार्य ज्ञानसागर जी ने संबोधित कर कहा को साधक को अंत समय में सभी पद का परित्याग आवश्यक माना गया है। इस समय शरीर की ऐसी अवस्था नहीं है कि मैं अन्यत्र जा कर सल्लेखना धारण कर सकूँ। तुम्हें आज गुरु-दक्षिणा अर्पण करनी होगी और उसी के फलस्वरूप यह पद धारण करना होगा। गुरु-दक्षिणा की बात से मुनि विद्यासागर निरुत्तर हो गये। तब धन्य हुई नसीराबाद(अजमेर) राजस्थान की वह घडी जब मगसिर कृष्ण द्वितीय, संवत 2023, बुधवार, 22 नवम्बर ,1972 ईस्वी को आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने अपने ही कर कमलों से आचार्य पद पर मुनि श्री विद्यासागर महाराज को संस्कारित कर विराजमान किया। इतना ही नहीं मान मर्दन के उन क्षणों को देख कर सहस्त्रों नेत्रों से आँसूओं की धार बह चली जब आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने मुनि श्री विद्यासागर महाराज को आचार्य पद पर विराजमान किया एवं स्वयं आचार्य पद से नीचे उतर कर सामान्य मुनि के समान नीचे बैठ कर नूतन आचार्य श्री विद्यासागर महाराज के चरणों में नमन कर बोले

"हे आचार्य वर! नमोस्तुयह शरीर रत्नत्रय साधना में शिथिल होता जा रहा हैइन्द्रियाँ अपना सम्यक काम नहीं कर पा रही हैं। अतः आपके श्री चरणों में विधिवत सल्लेखना पूर्वक समाधिमरण धारण करना चाहता हूँकृपया मुझे अनुगृहित करें।" आचार्य श्री विद्यासागर ने अपने गुरु की अपूर्व सेवा की। पूर्ण निमर्मत्व भावपूर्वक आचार्य ज्ञानसागर जी मरुभूमि में वि. सं. 2030 वर्ष की ज्येष्ठ मास की अमावस्या को प्रचंड ग्रीष्म की तपन के बीच दिनों के निर्जल उपवास पूर्वक नसीराबाद (राज.) में ही शुक्रवार, 1 जून 1973 ईस्वी को 10 बजकर 10 मिनट पर इस नश्वर देह को त्याग कर समाधिमरण को प्राप्त हुए।

गुरुदेव ने मुझे मोक्षमार्ग पर चलना सिखाया,
गुरुदेव ने मुझे जीवन में जीना सिखाया।
गुरुदेव की कृपा मैं कहाँ तक कहूँ मेरे भाई,
गुरुदेव ने ही मुझकोमेरा स्वरूप दिखाया।

जो मोक्षमार्ग पर खुद चलते और शिष्यों को चलाते उन्हें आचार्य कहते हैं।
जो शास्त्र को स्वयं पढते और शिष्यों को पढाते उन्हे उपाध्याय कहते हैं।
और जो सदा ध्यान में सदा लीन रहते हैंउन्हे साधु कहते हैं।
पर ये तीनो काम जो अकेले ही करते हैंउन्हीं को संत विद्यासागर कह्ते हैं।

हमने अरहंत भगवान को देखा नहीं है,
और सिद्ध भगवान कभी दिखते नहीं हैं।
इन दोनों का स्वरूप हमें आचार्य देव बताते हैं,
इसलिए इन्हीं को देखोये अरहंत और सिद्ध भगवान से कम नहीं हैं।

हर दिशाये दिनकर को जन्म नहीं देती,
हर रात शरद पूनम के चाँद को जन्म नहीं देती।
होती हैं माताऐं भी हजारों जगत में,
पर हर माता विद्यासागर जैसे संत को जन्म नहीं देती।

जीवन गाथा

भारत-भू पर सुधारस की वर्षा करने वाले अनेक महापुरुष और संत कवि जन्म ले चुके हैं। उनकी साधना और कथनी-करनी की एकता ने सारे विश्व को ज्ञान रूपी आलोक से आलोकित किया है। इन स्थितप्रज्ञ पुरुषों ने अपनी जीवनानुभव की वाणी से त्रस्त और विघटित समाज को एक नवीन संबल प्रदान किया है। जिसने राजनैतिकसामाजिकधार्मिकशैक्षणिक और संस्कृतिक क्षेत्रों में क्रांतिक परिवर्तन किये हैं। भगवान रामकृष्णमहावीरबुद्धईसाहजरत मुहम्मदौर आध्यत्मिक साधना के शिखर पुरुष आचार्य कुन्दकुन्दपूज्यपाद्मुनि योगिन्दुशंकराचार्यसंत कबीरदादूनानकबनारसीदासद्यानतराय तथा महात्मा गाँधी जैसे महामना साधकों की अपनी आत्म-साधना के बल पर स्वतंत्रता और समता के जीवन-मूल्य प्रस्तुत करके सम्पूर्ण मानवता को एक सूत्र में बाँधा है। उनके त्याग और संयम मेंसिद्धांतों और वाणियों से आज भी सुख शांति की सुगन्ध सुवासित हो रही है। जीवन में आस्था और विश्वासचरित्र और निर्मल ज्ञान तथा अहिंसा एवं निर्बैर की भावना को बल देने वाले इन महापुरुषोंसाधकोंसंत कवियों के क्रम में संतकवि दिगम्बर जैनाचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज वर्तमान में शिखर पुरुष हैंजिनकी ओज और माधुर्यपूर्ण वाणी में ऋजुताव्यक्तित्व में समताजीने में संयम की त्रिवेणी है। जीवन-मूल्यों को प्रतिस्ठित करने वाले बाल ब्रह्मचारी श्री विद्यासागर जी स्वभाव से सरल और सब जीवों के प्रति मित्रवत व्यवहार के संपोषक हैंइसी के कारण उनके व्यक्तित्व में विश्व-बन्धुत्व कीमानवता की सौंधी-सुगन्ध विद्यमान है।

आश्विन शरदपूर्णिमा संवत 2003 तदनुसार 10 अक्टूबर 1946 को कर्नाटक प्रांत के बेलग्राम जिले के सुप्रसिद्ध सदलगा ग्राम में श्रेष्ठी श्री मलप्पा पारसप्पा जी अष्टगे एवं श्रीमती श्रीमतीजी के घर जन्मे इस बालक का नाम विद्याधर रखा गया। धार्मिक विचारों से ओतप्रोतसंवेदनशील सद्गृहस्थ मल्लपा जी नित्य जिनेन्द्र दर्शन एवं पूजन के पश्चात ही भोजनादि आवश्यक करते थे। साधु-सत्संगति करने से परिवार में संयमअनुशासनरीति-नीति की चर्या का ही परिपालन होता था।

आप माता-पिता की द्वितीय संतान हो कर भी अद्वितीय संतान है। बडे भाई श्री महावीर प्रसाद स्वस्थ परम्परा का निर्वहन करते हुए सात्विक पूर्वक सद्गृहस्थ जीवन-यापन कर रहे हैं। माता-पितादो छोटे भाई अनंतनाथ तथा शांतिनाथ एवं बहिनें शांता व सुवर्णा भी आपसे प्रेरणा पाकर घर-गृहस्थी के जंजाल से मुक्त हो कर जीवन-कल्याण हेतु जैनेश्वरी दीक्षा ले कर आत्म-साधनारत हुए। धन्य है वह परिवार जिसमें सात सदस्य सांसारिक प्रपंचों को छोड कर मुक्ति-मार्ग पर चल रहे हैं। इतिहास में ऐसी अनोखी घटना का उदाहरण बिरले ही दिखता है।

विद्याधर का बाल्यकाल घर तथा गाँव वालों के मन को जीतने वाली आश्चर्यकारी घटनाओं से युक्त रहा है। खेलकूद के स्थान पर स्वयं या माता-पिता के साथ मन्दिर जानाधर्म-प्रवचन सुननाशुद्ध सात्विक आहार करनामुनि आज्ञा से संस्कृत के कठिन सूत्र एवं पदों को कंठस्थ करना आदि अनेक घटनाऐं मानो भविष्य में आध्यात्म मार्ग पर चलने का संकेत दे रही थी। आप पढाई हो या गृहकार्यसभी को अनुशासित और क्रमबद्ध तौर पर पूर्ण करते। बचपन से ही मुनि-चर्या को देखने उसे स्वयं आचरित करने की भावना से ही बावडी में स्नान के साय पानी में तैरने के बहाने आसन और ध्यान लगानामन्दिर में विराजित मूर्ति के दर्शन के समय उसमे छिपी विराटता को जानने का प्रयास करनाबिच्छू के काटने पर भी असीम दर्द को हँसते हुए पी जानापरंतु धार्मिक-चर्या में अंतर ना आने देनाउनके संकल्पवान पथ पर आगे बढने के संकेत थे।

गाँव की पाठशाला में मातृभाषा कन्नड में अध्ययन प्रारम्भ कर समीपस्थ ग्राम बेडकीहाल में हाई स्कूल की नवमी कक्षा तक अध्ययन पूर्ण किया। चाहे गणित के सूत्र हों या भूगोल के नक्शेपल भर में कडी मेहनत और लगन से उसे पूर्ण करते थे। उन्होनें शिक्षा को संस्कार और चरित्र की आधारशिला माना और गुरुकुल व्यवस्थानुसार शिक्षा को ग्रहण कियातभी तो आजतक गुरुशिष्य-परम्परा के विकास में वे सतत शिक्षा दे रहे हैं।

वास्तविक शिक्षा तो ब्रह्मचारी अवस्था में तथा पुनः मुनि विद्यासागर के रूप में गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी के सान्निध्य में पूरी हुई। तभी वे प्रकृतअपभ्रंससंस्कृतकन्नडमराठीअंग्रेजीहिन्दी तथा बंग्ला जैसी अनेक भाषाओं के ज्ञाता और व्याकरणछन्दशास्त्रन्यायदर्शनसाहित्य और अध्यात्म के प्रकाण्ड विद्वान आचार्य बने। आचार्य विद्यासागर मात्र दिवस काल में ही चलने वाले नग्नपाद पदयात्री हैं। रागद्वेषमोह आदि से दूर इन्द्रियजितनदी की तरह प्रवाहमानपक्षियों की तरह स्वच्छन्दनिर्मलस्वाधीनचट्टान की तरह अविचल रहते हैं। कविता की तरह रम्यउत्प्रेरकउदात्तज्ञेय और सुकोमल व्यक्तित्व के धनी आचार्य विद्यासागर भौतिक कोलाहलों से दूरजगत मोहिनी से असंपृक्त तपस्वी हैं।

आपके सुदर्शन व्यक्तित्व को संवेदनशीलताकमलवत उज्जवल एवं विशाल नेत्रसम्मुन्नत ललाटसुदीर्घ कर्णअजान बाहुसुडौल नासिकातप्त स्वर्ण-सा गौरवर्णचम्पकीय आभा से युक्त कपोलमाधुर्य और दीप्ति सन्युक्त मुखलम्बी सुन्दर अंगुलियाँपाटलवर्ण की हथेलियाँसुगठित चरण आदि और अधिक मंडित कर देते हैं। वे ज्ञानीमनोज्ञ तथा वाग्मी साधु हैं। और हाँ प्रज्ञाप्रतिभा और तपस्या की जीवंत-मूर्ति।

बाल्यकाल में खेलकूद में शतरंज खेलनाशिक्षाप्रद फिल्में देखनामन्दिर के प्रति आस्था रखनातकली कातनागिल्ली-डंडा खेलनामहापुरुषों और शहीद पुरुषों के तैलचित्र बनाना आदि रुचियाँ आपमें विद्यमान थी। नौ वर्ष की उम्र में ही चारित्र चक्रवर्ती आचार्य प्रवर श्री शांतिसागर जी महाराज के शेडवाल ग्राम में दर्शन कर वैराग्य-भावना का उदय आपके हृदय में हो गया था। जो आगे चल कर ब्रह्मचर्यव्रत धारण कर प्रस्फुटित हुआ। 20 वर्ष की उम्रजो की खाने-पीनेभोगोपभोग या संसारिक आनन्द प्राप्त करने की होती हैतब आप साधु-सत्संगति की भावना को हृदय में धारण कर आचार्य श्री देशभूषण महाराज के पास जयपुर(राज.) पहुँचे। वहाँ अब ब्रह्मचारी विद्याधर उपसर्ग और परीषहों को जीतकर ज्ञानतपस्या और सेवा का पिण्ड/प्रतीक बन कर जन-जन के मन का प्रेरणा स्त्रोत बन गया था।

आप संसार की असारताजीवन के रहस्य और साधना के महत्व को पह्चान गये थे। तभी तो हृष्ट-पुष्टगोरे चिट्टेलजीलेयुवा विद्याधर की निष्ठादृढता और अडिगता के सामने मोहमायाश्रृंगार आदि घुटने टेक चुके थे। वैराग्य भावना ददृढवती हो चली। अथ पदयात्री और करपात्री बनने की भावना से आप गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पास मदनगंज-किशनगढ(अजमेर) राजस्थान पहुँचे। गुरुवर के निकट सम्पर्क में रहकर लगभग वर्ष तक कठोर साधना से परिपक्व हो कर मुनिवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के द्वारा राजस्थान की ऐतिहासक नगरी अजमेर में आषाढ शुक्ल पंचमीवि.सं. 2025, रविवार, 30 जून 1968 ईस्वी को लगभग 22 वर्ष की उम्र में सन्यम का परिपालन हेतु आपने मत्र पिच्छि-कमन्डलु धारण कर संसार की समस्त बाह्य वस्तुओं का परित्याग कर दिया। परिग्रह से अपरिग्रहअसार से सार की ओर बढने वाली यह यात्रा मानो आपने अंगारों पर चलकर/बढकर पूर्ण की। विषयोन्मुख वृत्तिउद्दंडता एवं उच्छृंखलता उत्पन्न करने वाली इस युवावस्था में वैराग्य एवं तपस्या का ऐसा अनुपम उदाहरण मिलना कठिन ही है।

ब्रह्मचारी विद्याधर नामधारीपूज्य मुनि श्री विद्यासागर महाराज। अब धरती ही बिछौनाआकाश ही उडौना और दिशाएँ ही वस्त्र बन गये थे। दीक्षा के उपरांत गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज की सेवा – सुश्रुषा करते हुए आपकी साधना उत्तरोत्त्र विकसित होती गयी। तब से आज तक अपने प्रति वज्र से कठोरपरंतु दूसरों के प्रति नवनीत से भी मृदु बनकर शीत-ताप एवं वर्षा के गहन झंझावातों में भी आप साधना हेतु अरुक-अथक रूप में प्रवर्तमान हैं। श्रम और अनुशासनविनय और संयमतप और त्याग की अग्नि मे तपी आपकी साधना गुरु-आज्ञा पालनसबके प्रति समता की दृष्टि एवं समस्त जीव कल्याण की भावना सतत प्रवाहित होती रहती है।

गुरुवर आचार्य श्री ज्ञानसागर जी की वृद्धावस्था एवं साइटिकासे रुग्ण शरीर की सेवा में कडकडाती शीत हो या तमतमाती धूपय हो झुलसाती गृष्म की तपनमुनि विद्यासागर के हाथ गुरुसेवा मे अहर्निश तत्पर रहते। आपकी गुरु सेवा अद्वितीय रहीजो देशसमाज और मानव को दिशा बोध देने वाली थी। तही तो डॉ. पन्नालाल साहित्याचार्य ने लिखा था कि 10 लाख की सम्पत्ति पाने वाला पुत्र भी जितनी माँ-बाप की सेवा नहीं कर सकताउतनी तत्परता एवं तन्मयता पूर्वक आपने अपने गुरुवर की सेवा की थी।

किंतु सल्लेखना के पहले गुरुवर्य ज्ञानसागर जी महाराज ने आचार्य-पद का त्याग आवश्यक जान कर आपने आचार्य पद मुनि विद्यासागर को देने की इच्छा जाहिर कीपरंतु आप इस गुरुतर भार को धारण करने किसी भी हालत में तैयार नहीं हुएतब आचार्य ज्ञानसागर जी ने सम्बोधित कर कहा के साधक को अंत समय में सभी पद का परित्याग आवश्यक माना गया है। इस समय शरीर की ऐसी अवस्था नहीं है कि मैं अन्यत्र जा कर सल्लेखना धारण कर सकूँ। तुम्हें आज गुरु दक्षिणा अर्पण करनी होगी और उसी के प्रतिफल स्वरूप यह पद ग्रहण करना होगा। गुरु-दक्षिणा की बात सुन कर मुनि विद्यासागर निरुत्तर हो गये। तब धन्य हुई नसीराबाद (अजमेर) राजस्थान की वह घडी जब मगसिर कृष्ण द्वितीयासंवत 2029, बुधवार, 22 नवम्बर,1972 ईस्वी को आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने अपने कर कमलों आचार्य पद पर मुनि श्री विद्यासागर महाराज को संस्कारित कर विराजमान किया। इतना ही नहीं मान मर्दन के उन क्षणों को देख कर सहस्त्रों नेत्रों से आँसूओं की धार बह चली जब आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने मुनि श्री विद्यासागर महाराज को आचार्य पद पर विराजमान किया एवं स्वयं आचार्य पद से नीचे उतर कर सामान्य मुनि के समान नीचे बैठ कर नूतन आचार्य श्री विद्यासागर महाराज के चरणों में नमन कर बोले – “ हे आचार्य वर! नमोस्तुयह शरीर रत्नत्रय साधना में शिथिल होता जा रहा हैइन्द्रियाँ अपना सम्यक काम नहीं कर पा रही हैं। अतः आपके श्री चरणों में विधिवत सल्लेखना पूर्वक समाधिमरण धारण करना चाहता हूँकृपया मुझे अनुगृहित करें।“ आचार्य श्री विद्यासागर ने अपने गुरु की अपूर्व सेवा की। पूर्ण निमर्मत्व भावपूर्वक आचार्य ज्ञानसागर जी मरुभूमि में वि. सं. 2030 वर्ष की ज्येष्ठ मास की अमावस्या को प्रचंड ग्रीष्म की तपन के बीच दिनों के निर्जल उपवास पूर्वक नसीराबाद (राज.) में ही शुक्रवार, 1 जून 1973 ईस्वी को 10 बजकर 10 मिनट पर इस नश्वर देह को त्याग कर समाधिमरण को प्राप्त हुए।

आचार्य विद्यासागरजी द्वारा रचित रचना-संसार में सर्वाधिक चर्चित ओर महत्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में
मूक माटी” महाकाव्य ने हिन्दी-साहित्य और हिन्दी सत-सहित्य जगत में आचार्य श्री को काव्य की आत्मा तक पहुँचाया है।

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